Sunderkand Lyrics in Hindi – सुंदरकांड अर्थ सहित श्री रामचरित मानस
Sunderkand Lyrics सम्पूर्ण सुन्दरकाण्ड पाठ हिंदी लिरिक्स। श्री सुन्दर काण्ड का पाठ करने से आत्मबल, आध्यात्म बल और मानसिक बल की प्राप्ति होती है। आप में हर परिस्तिथि से लड़ने की क्षमता प्राप्त होती है, इसलिए आप को सुन्दरकाण्ड का पाठ करना चाहिए।
सुंदरकांड हिंदू महाकाव्य रामायण की पांचवीं पुस्तक है। इसमें हनुमान जी के कारनामों को दर्शाया गया है। मूल सुंदरकांड संस्कृत में है और इसकी रचना वाल्मीकि ने की थी, जिन्होंने सबसे पहले रामायण को लिपिबद्ध किया था। सुंदरकांड रामायण का एकमात्र अध्याय है जिसमें नायक राम नहीं, बल्कि भगवान हनुमान हैं।
श्रीजानकीवल्लभो विजयते
श्रीरामचरितमानस
पञ्चम सोपान
श्री सुन्दर काण्ड
ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम्।
रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं
वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूडामणिम्॥1॥
सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा।
भक्तिं प्रयच्छ रघुपुंगव निर्भरां मे
कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च॥2॥
दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥3॥
तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई। सहि दुख कंद मूल फल खाई॥1॥
यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा॥2॥
बार-बार रघुबीर सँभारी। तरकेउ पवनतनय बल भारी॥3॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना। एही भाँति चलेउ हनुमाना॥4॥
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥1॥
सुरसा नाम अहिन्ह कै माता। पठइन्हि आइ कही तेहिं बाता॥1॥
राम काजु करि फिरि मैं आवौं। सीता कइ सुधि प्रभुहि सुनावौं॥2॥
कवनेहुँ जतन देइ नहिं जाना। ग्रससि न मोहि कहेउ हनुमाना॥3॥
सोरह जोजन मुख तेहिं ठयऊ। तुरत पवनसुत बत्तिस भयऊ॥4॥
सत जोजन तेहिं आनन कीन्हा। अति लघु रूप पवनसुत लीन्हा॥5॥
मोहि सुरन्ह जेहि लागि पठावा। बुधि बल मरमु तोर मैं पावा॥6॥
आसिष देइ गई सो हरषि चलेउ हनुमान॥2॥
जीव जंतु जे गगन उड़ाहीं। जल बिलोकि तिन्ह कै परिछाहीं॥1॥
सोइ छल हनूमान् कहँ कीन्हा। तासु कपटु कपि तुरतहिं चीन्हा॥2॥
तहाँ जाइ देखी बन सोभा। गुंजत चंचरीक मधु लोभा॥3॥
सैल बिसाल देखि एक आगें। ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥
गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी। कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥
नाम लंकिनी एक निसिचरी। सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥
मुठिका एक महा कपि हनी। रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥
जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा। चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥
तात मोर अति पुन्य बहूता। देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥4॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥
अति लघु रूप धरेउ हनुमाना। पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥
गयउ दसानन मंदिर माहीं। अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥
भवन एक पुनि दीख सुहावा। हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥
नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥
मन महुँ तरक करैं कपि लागा। तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥
एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी। साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई। बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी। आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥
तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता। बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥
सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती। करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥
तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता। देखी चहउँ जानकी माता॥2॥
करि सोइ रूप गयउ पुनि तहवाँ। बन असोक सीता रह जहवाँ॥3॥
कृस तनु सीस जटा एक बेनी। जपति हृदयँ रघुपति गुन श्रेनी॥4॥
परम दुखी भा पवनसुत देखि जानकी दीन॥8॥
तेहि अवसर रावनु तहँ आवा। संग नारि बहु किएँ बनावा॥1॥
कह रावनु सुनु सुमुखि सयानी। मंदोदरी आदि सब रानी॥2॥
तृन धरि ओट कहति बैदेही। सुमिरि अवधपति परम सनेही॥3॥
अस मन समुझु कहति जानकी। खल सुधि नहिं रघुबीर बान की॥4॥
परुष बचन सुनि काढ़ि असि बोला अति खिसिआन॥9॥
नाहिं त सपदि मानु मम बानी। सुमुखि होति न त जीवन हानी॥1॥
सो भुज कंठ कि तव असि घोरा। सुनु सठ अस प्रवान पन मोरा॥2॥
सीतल निसित बहसि बर धारा। कह सीता हरु मम दुख भारा॥3॥
कहेसि सकल निसिचरिन्ह बोलाई। सीतहि बहु बिधि त्रासहु जाई॥4॥
सीतहि त्रास देखावहिं धरहिं रूप बहु मंद॥10॥
सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥1॥
खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥2॥
नगर फिरी रघुबीर दोहाई। तब प्रभु सीता बोलि पठाई॥3॥
तासु बचन सुनि ते सब डरीं। जनकसुता के चरनन्हि परीं॥4॥
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥11॥
तजौं देह करु बेगि उपाई। दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥
सत्य करहि मम प्रीति सयानी। सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥2॥
निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी। अस कहि सो निज भवन सिधारी।3॥
देखिअत प्रगट गगन अंगारा। अवनि न आवत एकउ तारा॥4॥
सुनहि बिनय मम बिटप असोका। सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। सो छन कपिहि कलप सम बीता॥6॥
जनु असोक अंगार दीन्ह हरषि उठि कर गहेउ॥12॥
चकित चितव मुदरी पहिचानी। हरष बिषाद हृदयँ अकुलानी॥1॥
सीता मन बिचार कर नाना। मधुर बचन बोलेउ हनुमाना॥2॥
लागीं सुनैं श्रवन मन लाई। आदिहु तें सब कथा सुनाई॥3॥
तब हनुमंत निकट चलि गयऊ। फिरि बैठीं मन बिसमय भयऊ ॥4॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी। दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥5॥
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥13॥
बूड़त बिरह जलधि हनुमाना। भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥1॥
कोमलचित कृपाल रघुराई। कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥2॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता। होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥3॥
देखि परम बिरहाकुल सीता। बोला कपि मृदु बचन बिनीता॥4॥
जनि जननी मानह जियँ ऊना। तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥5॥
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥14॥
नव तरु किसलय मनहुँ कृसानू। कालनिसा सम निसि ससि भानू॥1॥
जे हित रहे करत तेइ पीरा। उरग स्वास सम त्रिबिध समीरा॥2॥
तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥3॥
प्रभु संदेसु सुनत बैदेही। मगन प्रेम तन सुधि नहिं तेही॥4॥
उर आनहु रघुपति प्रभुताई। सुनि मम बचन तजहु कदराई॥5॥
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥15॥
राम बान रबि उएँ जानकी। तम बरुथ कहँ जातुधान की॥1॥
कछुक दिवस जननी धरु धीरा। कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा॥2॥
हैं सुत कपि सब तुम्हहि समाना। जातुधान अति भट बलवाना॥3॥
कनक भूधराकार सरीरा। समर भयंकर अतिबल बीरा॥4॥
प्रभु प्रताप तें गरुड़हि खाइ परम लघु ब्याल॥16॥
आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥
करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥
अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥
सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥
रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥
रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥
खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥
सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥
आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥
कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥
मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥
कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥
रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥3॥
मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥
जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥
तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥
तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥
दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥
देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥4॥
सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥20॥
की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥
सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥2॥
जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥3॥
हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥4॥
तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥21॥
समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥
सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥2॥
मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥
देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥22॥
रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥
बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥2॥
सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥
संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥23॥
बोला बिहसि महा अभिमानी। मिला हमहि कपि गुर बड़ ग्यानी॥1॥
उलटा होइहि कह हनुमाना। मतिभ्रम तोर प्रगट मैं जाना॥2॥
सुनत निसाचर मारन धाए। सचिवन्ह सहित बिभीषनु आए॥3॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई। सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥4॥
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥24॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई। देखउ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥1॥
जातुधान सुनि रावन बचना। लागे रचैं मूढ़ सोइ रचना॥2॥
कौतुक कहँ आए पुरबासी। मारहिं चरन करहिं बहु हाँसी॥3॥
पावक जरत देखि हनुमंता। भयउ परम लघुरूप तुरंता॥4॥
अट्टहास करि गर्जा कपि बढ़ि लाग अकास॥25॥
जरइ नगर भा लोग बिहाला। झपट लपट बहु कोटि कराला॥1॥
हम जो कहा यह कपि नहिं होई। बानर रूप धरें सुर कोई॥2॥
जारा नगरु निमिष एक माहीं। एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥3॥
उलटि पलटि लंका सब जारी। कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥4॥
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥
चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥
दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ सम संकट भारी॥2॥
मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥
तोहि देखि सीतलि भइ छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥
चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥27॥
नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा॥1॥
मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा॥2॥
चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा॥3॥
रखवारे जब बरजन लागे। मुष्टि प्रहार हनत सब भागे॥4॥
सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज॥28॥
एहि बिधि मन बिचार कर राजा। आइ गए कपि सहित समाजा॥1॥
पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी॥2॥
सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥3॥
फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई॥4॥
पूछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज॥29॥
ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर॥1॥
प्रभु कीं कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू॥2॥
पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए॥3॥
कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की॥4॥
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥30॥
नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी॥1॥
मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥2॥
नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा॥3॥
नयन स्रवहिं जलु निज हित लागी। जरैं न पाव देह बिरहागी॥4॥
बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति॥31॥
बचन कायँ मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही॥1॥
केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपुहि जीति आनिबी जानकी॥2॥
प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा॥3॥
पुनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता॥4॥
चरन परेउ प्रेमाकुल त्राहि त्राहि भगवंत॥32॥
प्रभु कर पंकज कपि कें सीसा। सुमिरि सो दसा मगन गौरीसा॥1॥
कपि उठाई प्रभु हृदयँ लगावा। कर गहि परम निकट बैठावा॥2॥
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥3॥
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा। निसिचर गन बधि बिपिन उजारा॥4॥
तव प्रभावँ बड़वानलहि जारि सकइ खलु तूल॥33॥
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी। एवमस्तु तब कहेउ भवानी॥1॥
यह संबाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥2॥
तब रघुपति कपिपतिहि बोलावा। कहा चलैं कर करहु बनावा॥3॥
कौतुक देखि सुमन बहु बरषी। नभ तें भवन चले सुर हरषी॥4॥
नाना बरन अतुल बल बानर भालु बरूथ॥34॥
देखी राम सकल कपि सेना। चितइ कृपा करि राजिव नैना॥1॥
हरषि राम तब कीन्ह पयाना। सगुन भए सुंदर सुभ नाना॥2॥
प्रभु पयान जाना बैदेहीं। फरकि बाम अँग जनु कहि देहीं॥3॥
चला कटकु को बरनैं पारा। गर्जहिं बानर भालु अपारा॥4॥
केहरिनाद भालु कपि करहीं। डगमगाहिं दिग्गज चिक्करहीं॥5॥
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किंनर दुख टरे॥
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं॥1॥
गह दसन पुनि पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई॥
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अबिचल पावनी॥2॥
जहँ तहँ लागे खान फल भालु बिपुल कपि बीर॥35॥
निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा। नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी। मंदोदरी अधिक अकुलानी॥2॥
कंत करष हरि सन परिहरहू। मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥
तासु नारि निज सचिव बोलाई। पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥4॥
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें। हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥5॥
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥36॥
सभय सुभाउ नारि कर साचा। मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥
कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा। तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥2॥
फमंदोदरी हृदयँ कर चिंता। भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥3॥
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू। ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास॥37॥
अवसर जानि बिभीषनु आवा। भ्राता चरन सीसु तेहिं नावा॥1॥
जौ कृपाल पूँछिहु मोहि बाता। मति अनुरूप कहउँ हित ताता॥2॥
सो परनारि लिलार गोसाईं। तजउ चउथि के चंद कि नाईं॥3॥
गुन सागर नागर नर जोऊ। अलप लोभ भल कहइ न कोऊ॥4॥
सब परिहरि रघुबीरहि भजहु भजहिं जेहि संत॥38॥
ब्रह्म अनामय अज भगवंता। ब्यापक अजित अनादि अनंता॥1॥
जन रंजन भंजन खल ब्राता। बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता॥2॥
देहु नाथ प्रभु कहुँ बैदेही। भजहु राम बिनु हेतु सनेही॥3॥
जासु नाम त्रय ताप नसावन। सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियँ रावन॥4॥
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस॥39क॥
तुरत सो मैं प्रभु सन कही पाइ सुअवसरु तात॥39ख॥
तात अनुज तव नीति बिभूषन। सो उर धरहु जो कहत बिभीषन॥1॥
माल्यवंत गह गयउ बहोरी। कहइ बिभीषनु पुनि कर जोरी॥2॥
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना। जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना॥3॥
कालराति निसिचर कुल केरी। तेहि सीता पर प्रीति घनेरी॥4॥
सीता देहु राम कहुँ अहित न होइ तुम्हारा॥40॥
सुनत दसानन उठा रिसाई। खल तोहिं निकट मृत्यु अब आई॥1॥
कहसि न खल अस को जग माहीं। भुज बल जाहि जिता मैं नाहीं॥2॥
अस कहि कीन्हेसि चरन प्रहारा। अनुज गहे पद बारहिं बारा॥3॥
तुम्ह पितु सरिस भलेहिं मोहि मारा। रामु भजें हित नाथ तुम्हारा॥4॥
मैं रघुबीर सरन अब जाउँ देहु जनि खोरि॥41॥
साधु अवग्या तुरत भवानी। कर कल्यान अखिल कै हानी॥1॥
चलेउ हरषि रघुनायक पाहीं। करत मनोरथ बहु मन माहीं॥2॥
जे पद परसि तरी रिषनारी। दंडक कानन पावनकारी॥3॥
हर उर सर सरोज पद जेई। अहोभाग्य मैं देखिहउँ तेई॥4॥
ते पद आजु बिलोकिहउँ इन्ह नयनन्हि अब जाइ॥42॥
कपिन्ह बिभीषनु आवत देखा। जाना कोउ रिपु दूत बिसेषा॥1॥
कह सुग्रीव सुनहु रघुराई। आवा मिलन दसानन भाई॥2॥
जानि न जाइ निसाचर माया। कामरूप केहि कारन आया॥3॥
सखा नीति तुम्ह नीकि बिचारी। मम पन सरनागत भयहारी॥4॥
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥43॥
सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं॥1॥
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई। मोरें सनमुख आव कि सोई॥2॥
भेद लेन पठवा दससीसा। तबहुँ न कछु भय हानि कपीसा॥3॥
जौं सभीत आवा सरनाईं। रखिहउँ ताहि प्रान की नाईं॥4॥
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत॥44॥
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता। नयनानंद दान के दाता॥1॥
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन। स्यामल गात प्रनत भय मोचन॥2॥
नयन नीर पुलकित अति गाता। मन धरि धीर कही मृदु बाता॥3॥
सहज पापप्रिय तामस देहा। जथा उलूकहि तम पर नेहा॥4॥
त्राहि त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुबीर॥45॥
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा। भुज बिसाल गहि हृदयँ लगावा॥1॥
कहु लंकेस सहित परिवारा। कुसल कुठाहर बास तुम्हारा॥2॥
मैं जानउँ तुम्हारि सब रीती। अति नय निपुन न भाव अनीती॥3॥
अब पद देखि कुसल रघुराया। जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया॥4॥
जब लगि भजत न राम कहुँ सोक धाम तजि काम॥46॥
जब लगि उर न बसत रघुनाथा। धरें चाप सायक कटि भाथा॥1॥
तब लगि बसति जीव मन माहीं। जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं॥2॥
तुम्ह कृपाल जा पर अनुकूला। ताहि न ब्याप त्रिबिध भव सूला॥3॥
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा। तेहिं प्रभु हरषि हृदयँ मोहि लावा॥4॥
देखेउँ नयन बिरंचि सिव सेब्य जुगल पद कंज॥47॥
जौं नर होइ चराचर द्रोही। आवै सभय सरन तकि मोही॥1॥
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा॥2॥
समदरसी इच्छा कछु नाहीं। हरष सोक भय नहिं मन माहीं॥3॥
तुम्ह सारिखे संत प्रिय मोरें। धरउँ देह नहिं आन निहोरें॥4॥
ते नर प्रान समान मम जिन्ह कें द्विज पद प्रेम॥48॥
राम बचन सुनि बानर जूथा। सकल कहहिं जय कृपा बरूथा॥1॥
पद अंबुज गहि बारहिं बारा। हृदयँ समात न प्रेमु अपारा॥2॥
उर कछु प्रथम बासना रही। प्रभु पद प्रीति सरित सो बही॥3॥
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा। मागा तुरत सिंधु कर नीरा॥4॥
अस कहि राम तिलक तेहि सारा। सुमन बृष्टि नभ भई अपारा॥5॥
जरत बिभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड॥49क॥
सोइ संपदा बिभीषनहि सकुचि दीन्हि रघुनाथ॥49ख॥
निज जन जानि ताहि अपनावा। प्रभु सुभाव कपि कुल मन भावा॥1॥
बोले बचन नीति प्रतिपालक। कारन मनुज दनुज कुल घालक॥2॥
संकुल मकर उरग झष जाती। अति अगाध दुस्तर सब भाँति॥3॥
जद्यपि तदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥4॥
बिनु प्रयास सागर तरिहि सकल भालु कपि धारि॥50॥
मंत्र न यह लछिमन मन भावा। राम बचन सुनि अति दुख पावा॥1॥
कादर मन कहुँ एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥2॥
अस कहि प्रभु अनुजहि समुझाई। सिंधु समीप गए रघुराई॥3॥
जबहिं बिभीषन प्रभु पहिं आए। पाछें रावन दूत पठाए॥4॥
प्रभु गुन हृदयँ सराहहिं सरनागत पर नेह॥51॥
रिपु के दूत कपिन्ह तब जाने। सकल बाँधि कपीस पहिं आने॥1॥
सुनि सुग्रीव बचन कपि धाए। बाँधि कटक चहु पास फिराए॥2॥
जो हमार हर नासा काना। तेहि कोसलाधीस कै आना॥3॥
रावन कर दीजहु यह पाती। लछिमन बचन बाचु कुलघाती॥4॥
सीता देइ मिलहु न त आवा कालु तुम्हार॥52॥
कहत राम जसु लंकाँ आए। रावन चरन सीस तिन्ह नाए॥1॥
पुन कहु खबरि बिभीषन केरी। जाहि मृत्यु आई अति नेरी॥2॥
पुनि कहु भालु कीस कटकाई। कठिन काल प्रेरित चलि आई॥3॥
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी। जिन्ह के हृदयँ त्रास अति मोरी॥4॥
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा। जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥
श्रवन नासिका काटैं लागे। राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥
नाना बरन भालु कपि धारी। बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥
अमित नाम भट कठिन कराला। अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥
राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं। तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥
नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं। जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला। पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका। मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥
सक सर एक सोषि सत सागर। तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥
सुनत बचन बिहसा दससीसा। जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई। रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी। समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन। सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥
राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56क॥
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56ख॥
भूमि परा कर गहत अकासा। लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा। नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही। उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥
जब तेहिं कहा देन बैदेही। चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥
करि प्रनामु निज कथा सुनाई। राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥
बंदि राम पद बारहिं बारा। मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥57॥
सठ सन बिनय कुटिल सन प्रीति। सहज कृपन सन सुंदर नीति॥1॥
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा। ऊसर बीज बएँ फल जथा॥2॥
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥3॥
कनक थार भरि मनि गन नाना। बिप्र रूप आयउ तजि माना॥4॥
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥
गगन समीर अनल जल धरनी। इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी॥1॥
प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहें सुख लहई॥2॥
ढोल गवाँर सूद्र पसु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी॥3॥
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई। करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई॥4॥
जेहि बिधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ॥59॥
तिन्ह कें परस किएँ गिरि भारे। तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे॥1॥
एहि बिधि नाथ पयोधि बँधाइअ। जेहिं यह सुजसु लोक तिहुँ गाइअ॥2॥
सुनि कृपाल सागर मन पीरा। तुरतहिं हरी राम रनधीरा॥3॥
सकल चरित कहि प्रभुहि सुनावा। चरन बंदि पाथोधि सिधावा॥4॥
यह चरित कलि मल हर जथामति दास तुलसी गायऊ॥
सुख भवन संसय समन दवन बिषाद रघुपति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहि सुनहि संतत सठ मना॥
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान॥60॥
इति श्रीमद्रामचरितमानसे सकलकलिकलुषविध्वंसने पंचमः सोपानः समाप्तः।
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